आखिर समाज में महिलाओं के खिलाफ क्यों बढ़ रही है हिंसा
रत्ना शुक्ला आनंद, आवाज़ ए ख़्वातीन
समाज में लगातार महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं. आखिर वह कौन सी चीजें जिम्मेदार हैं जिनकी वजह से इस तरह की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं. इस मसले पर मशहूर पत्रकार और एक्टिविस्ट शीबा असलम फहमी के साथ बातचीत की है रत्ना शुक्ला आनंद ने. पेश हैं मुख्य अंश.
प्र.- कौन-सी ऐसी सामाजिक चीजें जिम्मेवार हैं जो ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं?
शीबा असलम फहमीः किसी भी तरह के अपराध के पीछे एक तरह का पावर ऑफ इक्वेशन होती है. हमेशा अपराधी अपने शिकार को कमजोर मानता है. उसको यकीन होता होता है कि वह पलटकर वार नहीं कर सकता. पावर ऑफ इक्वेशन की वजह से सड़कों पर मर्द ही मर्द को डांट रहे होते हैं या मार रहे होते हैं. जो डिसबैलेंस है उस डिसबैलेंस का फायदा उठाकर करके ही अत्याचारी अत्याचार करता है.
इसका विश्लेषण करेंगे तो पता चलेगा पावर किस तरह से आता है. एक कहावत है कि आपको पावर तभी चाहिए जब आपको किसी के ऊपर अपनी मर्जी थोपनी होती है। वरना भला करने के लिए तो सिर्फ दयालुता ही काफी है. बुरा करने के लिए पावर की जरूरत होती है. इस पर बात होनी चाहिए और जेंडर के हवाले से भी बात होनी चाहिए. उसके अलावा जो हमारे समाज में प्रोटोकॉल तय करता है उसके कारण ही पावर सिमट गया है. मतलब है कि महिला देखने में शारीरिक रूप से दुर्बल ना भी हो लेकिन कई बार वह अपने घर पर पिता या पति की मार खाती है और वह पलटकर हाथ नहीं उठाती है. खासतौर पर पति को उसी भाषा में जवाब नहीं देती है क्योंकि समाजिक प्रोटोकॉल ने भी उसको डिसपावर किया है और कमजोर बनाया है.
सवालः क्या इसमें परवरिश का भी दोष होता है?
शीबा असलम फहमीः विदेश में एक बार युवाओं की झुंड से एक बार पूछा गया यूरोप की बात है कि इतनी लड़कियां यहां से गुजर रही है आपने किसी की तरफ कुछ कहा नहीं,किसी को रोका नहीं,किसी से छेड़खानी नहीं की तो वह सभी अवाक रह गए। सेल्फ रिस्पेक्ट उनकी उन्हें यह करने की इजाजत नहीं दे रही थी. भारत जैसे थर्ड वर्ल्ड की दुनिया में पुरुष की सेल्फ रिस्पेक्ट यह है कि कोई लड़की बचके गुजर कैसे गई?हमने कुछ कहा ही नहीं?क्या चूड़ियां पहन रखी है?आमतौर पर मर्द सोचते हैं.यह चीजें परवरिश से ही आती है. यह परवरिश ही तय करती है कि आप किस को किस नजर से देखते हैं.
भारत जैसे देश में बहुत ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आधुनिकता ने जिस तरह से टेक्नोलॉजिकल इंटरवेंशन किया है खास तौर पर एक सोसाइटी में, उसका एक बहुत बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ कि देखिए अज्ञानता और अशिक्षा और अक्षर ज्ञान की कमी तो हमारे यहां हमेशा से थी. खास तौर पर कामोत्तेजक साहित्य हमेशा से लिखा गया, जबसे प्रिंटिंग प्रेस आया है तब से धार्मिक किताबें और कामोत्तेजक किताबें दोनों एक साथ चलती रही है. लेकिन जब तक टेक्नोलॉजी इस तरह से मोबाइल के तौर पर हमारे हाथ में हथेलियों पर नहीं आई थी तब तक अक्षर ज्ञान जो है उसको लिमिट कर देता था. यानी बहुत बड़ा तबका अशिक्षित था उस तक पहुंच रही थी उन किताबों की. अभी ऑडियो और विजुअल माध्यम का अधिक प्रचार हुआ है जबकि शिक्षा का प्रचार उच्च स्तर पर नहीं हुआ जिसमें किसी कानून के प्रति इज्जत हो जिसमें किसी तरह की सामाजिक नैतिकता सिखाई जाती हो ऐसा नहीं हुआ.
लेकिन हथेली पर जो मोबाइल आया और सारी दुनिया एक क्लिक पर मौजूद है ऐसे कई सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि पोर्न साइट सबसे ज्यादा सर्च की जाती है. भारत, पाकिस्तान और तीसरी दुनिया के देशों में अब आप देखेगी जिन लोगों को स्कूल जाने का कभी मौका नहीं मिला और जिनकी जिंदगी में शिक्षा किसी रूप में भी नहीं मिली है उनके हाथ में पोर्न आ गया है. उनको सही और गलत का नहीं पता है. और यह 10 या 11 साल के बच्चे हैं यहां से सिलसिला शुरू होता है उनको किसी भी तरह की सामाजिकता की, शरीर की, किसी भी तरह की समझ नहीं उस विकसित हुई है जबकि उनके हाथ में एक वीभत्स डिस्कोर्स है जिसमें वो समझते हैं कि महिला का शरीर है उसका इस्तेमाल किया जाता है.
शिक्षा के अभाव में स्कूल के अभाव में किसी भी तरह के परवरिश, खास तौर पर जिसे हम जागरूक परवरिश कहते हैं, उसके अभाव में सही-गलत का फैसला नैतिक या नैतिक क्या है कानूनी या गैर कानूनी क्या है इन सब के अभाव में, अब यह वीभत्स आइटम उसके हाथ में आ गया है जो उसकी पूरी साइकोलॉजी को बदल रही है. समाज को इस में गंभीरता से सोचना चाहिए.
बहुत से लोग कहते हैं कि पोर्न तो दूसरे रूप में पहले समाज में किताबों की शक्ल में था पेंटिंग की शक्ल में था, इरॉटिका की शक्ल में था. लेकिन यह सब केवल एक एलीट वर्ग तक सीमित था चाहे कोई माध्यम हो यह सारी की सारी चीजें सिर्फ बंद दरवाजों में थी. अक्सर वह वर्ग था जिसके पास शिक्षा थी और किताब में क्या लिखा है जब तक अक्षर ज्ञान ना हो तब तक इसका कोई फायदा नहीं है. गंभीरता से सोचिए जो दृश्य श्रव्य माध्यम है इसकी भयावहता को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. और हमारे देश के युवा आज कुछ भी लिखने से पहले यह क्रूरता और गंदगी के बारे में जान रहे हैं सीख रहे हैं यह बहुत चिंता की बात है.
सवालः परवरिश में भी पहले से कुछ फर्क आया है या हमारी जिस तरह की मान्यताएं हैं कि लड़कों को लड़कियों के मुकाबले कहीं ना कहीं उनके भीतर बात बैठ जाती है मैं ज्यादा पावरफुल हूं या अधिक काबिल हूं तो क्या इनका भी प्रभाव पड़ता है?
शीबा असलम फहमीः परवरिश का सवाल तो बेहद जरूरी है. मिडिल क्लास के बहुत सारे लड़के बहुत शर्मीले और बहुत संस्कारी होते हैं उनको तो बाद में सेलिब्रेशन ऑफ मैसकुलैरिटी ने पूरे कल्चर को बदल दिया है.सभ्य होना,थोड़ा संकोची होना,शर्मीला होना एक अवगुण बन गया है और खास तौर पर पुरुषों के लिए, यहां तक की लड़कियों के लिए भी हो गया है. तो अपनी हदों में रहने दब्बू होना कहा जाने लगा है और मैसकुलाइनिटी का जो सेलिब्रेशन है उसको आप पॉपुलर कल्चर से देखिए. फराह खान और अक्षय कुमार की पिक्चर आई थी जिसमें एक डायलॉग था जो बाद में कॉलर ट्यून बनकर बिका वह डायलॉग था, तवायफ या वेश्या की लुटती हुई इज्जत को बचाना बेवकूफी है.
आपको याद होगा एक गाना था उसमें रेप और सेक्सुअल असॉल्ट को एक नॉर्मल चीज बताया जा रहा था और महिला के शरीर का चित्र से वर्णन लगातार लगातार चल रहा है. पूरा जो विज्ञापन जगत है उसमें देखिए तो कोई विज्ञापन होगा जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों दिखाया गया होगा लेकिन उस विज्ञापन में पुरुष को पूरी तरह से ढका छुपा सूट में खड़ा है और महिला जो है कम कपड़ों में खड़ी है. ऐसे देखेंगे तो पॉपुलर कल्चर का भी बहुत बड़ा योगदान है. मर्दानगी के कारण जबरदस्ती या ताकत का इस्तेमाल कानून तोड़ करके दिखाया जाता है चाहे वह फिल्म सिंघम हो चाहे वह दूसरी फिल्में हो जिसमें लगातार एक सेलिब्रेशन है एक मर्द होने का. उस मर्द को सहनशील नहीं होना है उस मर्द को कोमल भावनाओं वाला नहीं होना है उसको गुंडे के बराबर गुंडा होना है जो गैर कानूनी कैरेक्टर है जिसका काम ही गैर कानूनी काम करना है.
मैं वह ज्यादा फिल्में देखती नहीं हूं लेकिन जो देखती हूं कि शालीनता जो है बहुत बड़ा अवगुण बन गई है और गाने एडवरटाइजमेंट और आज के अखबार को भी गौर से देखें अखबार का पन्ना खोलें तो उसमें सॉफ्ट पॉर्न लगातार परोसा जा रहा है. सुबह-सुबह आपके घर में आपके बुजुर्ग-बच्चे उस अखबार को पढ़ते हैं और समझते हैं महिला का शरीर खेलने की चीज है. महिला का शरीर वस्तु में तब्दील करते जा रहे हैं और जब रेप होता है तो आजकल आप देखिए कि किस एज ग्रुप के बच्चे और किस वर्ग के बच्चे संलिप्त है बहुत भयानक है. चाहे वह हैदराबाद वाली घटना हो चाहे जो अभी दिल्ली में हुआ है. कोई भी मामला देख लीजिए हर मामले में जिस वर्ग के भी बच्चे हैं उसमें अधिकांश 20 वर्ष अधिकतम आयु है और हमारे युवाओं पर उनकी जिंदगी पर उसका कितना प्रभाव है यह बहुत जरूरी है समझना.
रेप के साथ-साथ जो वीभत्सता आई है केवल रेप नहीं होता है कीलिंग है. आज इतनी भी विभत्स किलिंग है एक नया तरह का ट्रेंड है. कानून का जो सवाल है वह भी बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन खासतौर पर परवरिश की जरूरत है यह बहुत बुनियादी सवाल है.
सवालः लगातार समाज बदला है एकल परिवार हुए हैं, माता-पिता बच्चों को अधिक समय नहीं दे पाते हैं तो जो मानवीय मूल्य है उनकी शिक्षा भी बहुत अच्छी तरह से नहीं दे पा रहे हैं. बच्चे ज्यादातर समय वीडियो गेम्स में बिताते हैं जो बहुत हिंसक हैं. और इनको आप कितना जिम्मेदार मानती हैं?
शीबा असलम फहमीः एकल परिवार हमारे डेवलपमेंट मॉडल का सवाल है. असल में मां-बाप तो गांव में बैठे हैं. और लड़का नौकरी करने के लिए शहर में आता है और बाद में ब्याह कर करके अपनी पत्नी को भी लाता है. छोटी सी जिंदगी है उसकी, बड़ा घर नहीं ले सकता है तो एक कमरे के मकान में या दो कमरे के मकान में पत्नी और बच्चे के साथ रहने को मजबूर हैं. यह जो हमारा डेवलपमेंट मॉडल है यूपी, बिहार, उड़ीसा, बंगाल से लोगों को पलायन करना पड़ता है. हमारे मेट्रो सिटी को ओवर डेवलपमेंट ना करके पूरे सभी देश में सभी शहर को बराबर से बांटा गया होता, तो हर आदमी इस वक्त मजबूर है दिल्ली मुंबई या हैदराबाद जाने के लिए तो वह मजबूर नहीं होता. परिवार एक रहता. यह डेवलपमेंट मॉडल से जुड़ा हुआ सवाल है क्योंकि लड़का निकलता है 12वीं दसवीं या ग्रेजुएट होकर और फिर जिंदगी की भाग दौड़ उसे वहीं तक सीमित कर देती है.
न्यूक्लियर फैमिली का जो सवाल है मुझे यह लगता है जिन घरों में दादा-दादी, नाना-नानी साथ है वहां पर भी बच्चे अपने कमरों में लैपटॉप, मोबाइल या आईपैड के साथ अलग जिंदगी गुजारने लगे हैं. हर एक के पास अपना अलग कमरा है और वहां वह अपनी प्राइवेसी में जीना चाहता है. यह सिर्फ पोर्न का मसला नहीं है यह बहुत हिंसक गेम का भी मसला है. यह पब्जी जैसे गेम एक और गेम था जो जिसमें बच्चे बाद में आत्महत्या कर लेते थे यह बहुत खतरनाक है आपकी हथेली में पूरी दुनिया है और वहां प्राइवेसी है बच्चे इतने चिड़चिड़ा हो गए हैं और वह बिल्कुल डिस्टर्ब नहीं होना चाहते हैं.
अब वह घर में देख रहे होते हैं कि उसके मां-बाप या ग्रैंडपेरेंट्स मुश्किल में होते हैं लेकिन उनकी मुश्किल को आसान बनाने के लिए खड़े नहीं होते हैं. यह उनका मसला ही नहीं है और यह वाला जो स्वभाव बन रहा है बच्चों का, यह इंटरनेट से बन रहा है इसको लेकर बहुत सारे स्टडीज हैं। हम लोगों को इसे बहुत सीरियसली देखना चाहिए तकनीक के मामले में शुरुआत में ये था कि इससे बस फायदा होगा. न्यूक्लियर फैमिली एक प्रॉब्लम है लेकिन जहां-जहां साथ साथ हैं वहां पर भी एक प्रॉब्लम है शहरों में वहां पर भी सब अपनी अपनी दुनिया में मस्त व्यस्त हैं.
सवालः बच्चों में जिस तरह से एकाकी जीवन जीना पसंद आने लगा है और सामाजिकता उनमें नहीं बची है तो उसका कैसे निदान हो?
शीबा असलम फहमीः वहीं से शुरू होगा कि गरीब अपना पेट पालने के लिए जिला या परिवेश को छोड़ते हैं यह परिपाटी खत्म होनी चाहिए. सार्वजनिक शिक्षा है उसको बहुत ही निम्न स्तर का बनाया गया है और जितना भी है वह गायब होती जा रही है। शिक्षा में निवेश सरकारें ज्यादा करें. उसके अलावा नैतिक मूल्य भी सिखाया चाहिए. देखिए आप और हम जो जन गण मनगाते हैं यह हमें कंठस्थ है क्योंकि हम स्कूल गए हैं. जो स्कूल नहीं गया है वह कितना भी देशप्रेम से ओतप्रोत हो लेकिन वह पूरा जन गण मन शायद ही सुना पाए. वह वंदे मातरम नहीं गा पाएगा. हमारे यहां यानी हमारे स्कूल में मोरल स्टडी का एक पीरियड होता था उसमें थैंक्स और सॉरी से लेकर हर चीज थी अब मुझे नहीं पता ही पब्लिक स्कूल में क्या है. खासतौर पर जो छोटे शहरों का हाल है वहां के सरकारी स्कूलों में अगर मिड-डे-मील ना हो बच्चे स्कूल ही न जाए. सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हर बच्चा कम से कम दसवीं तक की पढ़ाई करें और जो दसवीं के पहले का जो ड्रॉपआउट है वह बहुत खतरनाक है और यह बहुत खतरनाक स्टेज है उसको चेक करना पड़ेगा तो शिक्षा संस्कार और सही और गलत की पहचान यह सब सब कुछ एक क्रम है और स्कूल इसमें एक बहुत अच्छा माध्यम है.
सवालः क्या आपको लगता है कि एक फैमिली में लड़कों को भी काम करना चाहिए. उन्हें बताना चाहिए बाकी जो महिलाएं हैं या बच्चे हैं उनकी भी इज्जत करें?
शीबा असलम फहमीःयह पूरी तरह जेंडर का सवाल है कि महिलाओं के प्रति पुरुषों का क्या नजरिया हो. जेंडर का सवाल अगर ना भी हो तो क्या पुरुष, पुरुष के साथ सभ्य है?क्या लड़के सेक्सुअल अब्यूज के शिकार नहीं होते हैं, क्या लड़कों की ट्रैफिकिंग नहीं हो रही है, क्या लड़के और उसी तरह के अपराध के शिकार नहीं हो रहे हैं?सिर्फ डिग्री का फर्क है. कौन सा अपराध है जो सिर्फ महिलाओं के साथ हो रहा है पुरुषों के साथ नहीं हो रहा है. यह बहुत भयानक स्थिति है. रेप के खिलाफ तो पूरा समाज खड़ा हो जाता है चाहे वह खाप पंचायत हो चाहे वह हमारे मौलवी हजरात हो और वह इस कारण औरतों को बुर्के में बंद करना चाहते हैं चाहे कोई और बिरादरी पंचायत हो या ऊपर पंचायत हो और जो बिल्कुल मर्दवाद की पक्षधर हो, वह भी रेप के खिलाफ खड़ी हो जाती है. लेकिन जैसे ही उससे यह बात करो कि लड़कियों को बराबर का अधिकार दो तो लोग पलट जाते हैं.
जब जया भादुरी से पूछा गया था कि ऐश्वर्या राय में बहू के रूप में सबसे अच्छी बात क्या लगी तो जया भादुरी ने कहा था ऐश्वर्या राय बोलती बहुत कम है. 21वीं सदी के सास को कम बोलने वाली मिस वर्ल्ड बहू चाहिए थी और यह जो बेईमानी है हमारे अंदर इसको चेक करना पड़ेगा. लड़कियों को बचपन से ही मायके से ही मजबूत करनी पड़ेगी और देखिए आप उनको लड़के जब गलतियां करते हैं तो उनको पलट कर घर आने का साहस रहता है कि कोई बात नहीं कारोबार में जो नुकसान हो गया है घर में जमीन है वह बेच देंगे और नया कारोबार शुरू करेंगे और यह भरोसा कभी लड़की को नहीं होता है. कि जो प्रोफेशन चुना है उसमें कुछ ऊंच-नीच हो गई या हमने घर में या कलीग या बॉस की बदतमीजी पर लात मार दी नौकरी को और घर में जाकर बताया तो यह विश्वास नहीं होता है कि घर वाले को कैसे डील करेंगे. वह तो सिर्फ यह कहेंगे कि घर बैठे और अब शादी करेंगे तुम्हारी और जब लड़कियां बहुत कुछ बाहर बर्दाश्त करती है उसके पीछे वही कमजोरी होती है कि घर में बैठकर जाकर अपनी परेशानी कह सकती है बेटे की तरह यह नहीं कह सकती है कि जहां आत्मसम्मान की रक्षा नहीं हो रही है वहां नहीं जाऊंगी. यह काम नहीं करूंगी या मैं अपना कुछ करूंगी या घर में जो खेत है या दुकान है जो हमें दे दीजिए हम दुकान खोलेंगे और यह बेटियों को यकीन हम नहीं देते और इसकी वजह से हमारी बेटियां समझौता करती है और छोटी सी जो विंडो खुली है आजादी की अपने टैलेंट को अपनी शिक्षा को इस्तेमाल करने की वह बंद हो जाती है.
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