गर्व से कहें यह मेरी बेटी है , अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस विशेष
मेहमान का पन्ना
जान्हवी शुक्ला / आवाज़ ए ख़्वातीन
एक निजी संस्था में उच्च पद पर कार्यरत प्रेरणा अपने माता-पिता की अकेली संतान है। अपने कार्यक्षेत्र के अलावा प्रेरणा पर अपने मायके और ससुराल दोनों की ज़िम्मेदारी है। बुज़ुर्ग माता-पिता और सास ससुर सब प्रेरणा को हाथों हाथ लेते हैं, वो उनके लिए आदर्श बहू और बेटी का फ़र्ज़ पूरा कर रही है, लेकिन दोनों परिवारों का भरपूर प्यार पाने वाली प्रेरणा का आत्मसम्मान उस समय आहत हो जाता है जब तारीफ में सब उससे कहते हैं, ये तो हमारा बेटा है। यह तकलीफ़ केवल प्रेरणा की ही नहीं हर उस बेटी की है जिसका पूरा जीवन मौजूदा सामाजिक परिवेश में स्वयं को परिवार का बेटा या उससे भी योग्य साबित करने में बीत जाता है। तो क्या हमारा समाज अब भी बेटी को स्वीकार नहीं कर पाया है?
आज बेटियां हर क्षेत्र में आगे हैं लेकिन विडंबना ये है कि आज भी लोग कहते हैं कि मेरी बेटी बिल्कुल बेटे की तरह है, या बेटे से बढ़कर है। यानी आज भी उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, अलग पहचान नहीं है, और यही बात उसके अंतर्मन को ठेस पहुँचाती है।
बेटी को बेटा कहकर बुलाना बेटी को कमज़ोर करता है
संपूर्ण विश्व में बेटियां आज अपना परचम लहरा रही है। बेटियाँ घर से अंतरिक्ष तक पहुंच गई हैं। घर की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए वे सर्वोच्च शिखर तक पहुंच गई हैं। अब वो समय बहुत पीछे छूट गया जब लोग कहते थे कि अरे बेटी हुई है। बेटा और बेटी का अपना- अपना स्थान और महत्व है, लेकिन बेटी को लेकर पूर्वाग्रह अब भी पुरानी परम्परा के अनुसार कायम हैं क्योंकि शायद हमने कभी बेटी की सही परिभाषा गढ़ी ही नहीं। आज बेटियाँ घर की जिम्मेदारियां निभा रही हैं, उच्च पदों पर पहुंच रही हैं लेकिन माता-पिता बड़े ही गर्व से कहते हैं "मेरी बेटी ने बेटे जैसा काम किया है"। ऐसी प्रशंसा करने से दरअसल बेटे की भावना का निर्माण होता है, और संदेश ये जाता है कि घर में बेटा भी होना चाहिए। इस तरह हम समाज में बेटी को बेटा कहकर उसे कमज़ोर करते हैं। बेटी को बेटी ही रहने दीजिए, फिर देखिए हमें शायद कभी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालिका दिवस मनाने की आवश्यकता नहीं होगी।
कैसे करें बेटियों की परवरिश
आज की सदी में बेटियाँ सेना से लेकर वैज्ञानिक, पायलट और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक बन रही हैं ऐसे में बच्चों की परवरिश का महत्वपूर्ण स्थान है। बेटे और बेटी की परवरिश बिल्कुल बराबरी से करें। उनके बीच कभी श्रेष्ट या कमतर होने का भाव न आने दें, क्यूंकि यही बातें सामाजिक अत्याचारों को बढ़ावा देती हैं। घर के कामों या ख़ास निर्णय के लिए केवल बेटों को ही ज़िम्मेदार बनाया या माना जाता है, आज भी समाज में यह सोच नहीं बन पाई है कि बेटियाँ भी परिवार की ज़िम्मेदारी उठा सकती हैं।
स्वयं को और समाज को बदलें
यह सर्वमान्य सत्य है कि दुनिया के श्रेष्ठतम या सबसे ताकतवर पुरुष की परवरिश भी एक माँ यानी स्त्री के हाथों ही होती है, तो फिर उसकी क्षमता को साबित करना सूरज को दिया दिखाने की तरह है। नाम लिए बगैर मैं यहां एक महिला पुलिस अधिकारी का ज़िक्र करना चाहती हूं, जब उन्होंने पदभार संभाला तो मीडिया जगत में उनकी कामयाबी को बार-बार "महिला आईपीएस" की संज्ञा से परिभाषित किया गया जिसपर उन्हें घोर आपत्ति हुई क्यूंकि उनका मानना था कि "मैं एक पुलिस अधिकारी हूं, महिला या पुरुष की श्रेणी में रखना मेरी काबिलियत पर प्रश्नचिन्ह लगाने की तरह है।
बेटी को आगे बढ़ाने में परिवार की भूमिका
बेटियों के लिए लोगों को जागरुक करना बेहद ज़रूरी है।बेटी को ना पढ़ाना, उन्हें जन्म से पहले मारना, घरेलू हिंसा, दहेज और दुष्कर्म से बेटियों को बचाने के लिए बचपन से बेटा और बेटी दोनों को जागरुक करें, क्योंकि समाज का निर्माण यही करेंगे। समाज को यह समझना होगा कि बेटियां बोझ नहीं होती, बल्कि आपके घर का एक अहम हिस्सा होती हैं जिनकी अपार क्षमता का एहसास अक्सर किसी विपरीत परिस्थिति में होता है।
बेटियाँ हर साँस में आपके साथ होती हैं, अपने परिवार के लिए हर खुशी हासिल करने में सक्षम होती हैं, आज आप उन्हें अपने हाथों से सहारा दें, प्यार दें, अहमियत दें, कल वो अपने मज़बूत कंधों से आपको सहारा देंगी।
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